वो कौन है वो कौन है,
जग जिससे डरता है।
जागता है रात भर और
आहें भरता है ?

कोई तो है। कौन है वह आपके जीवन काल के किसी खंड में आपके साथ वह रहता है। फिर नहीं रहता है। इस जीवन काल के दूसरे खंड में ही पहले की तरह एक दूसरा आ जाता है। या, आप किसी दूसरे के जीवन काल के एक खंड में समा जाते है। एक घर, एक परिवार सा, एक जिंदगी सी,एक जीवन सा, आ जाता है, कौन है वह ? जिसके बगैर, करार नहीं होता है। 24 घंटे में एक बार एक आकर्षण दोनों को मिला बैठता है। गप्पे होती हैं। जिंदगी की छोटी – बड़ी समस्याओं पर विचार करते हैं। समाधान ढूंढते हैं। वह कौन है ? कोई रिश्ता नहीं। चाचा, मौसा, भाई, भतीजा, साला बहनोई, साढू कोई संबंध नहीं। मगर, प्रगाढ़ता ऐसी कि मानो, सगे हों। आश्चर्य तो यह दो- डेढ़ वर्ष के बाद दोनों एक दूसरे के जीवन से ऐसे गायब हो जाते हैं मानो, कुछ हुआ ही न हो।
तो क्या वे मित्र थे, दोस्त थे या सिर्फ संगी, साथी फ्रेंड थे ? क्या थे? वे यदि इतने ही महत्वपूर्ण थे तो ऐसे कैसे बिछुड़ते रहे कि एक दूसरे के जीवन में उनके होने का कोई पहचान ही नहीं रहा। आप स्थिर होकर अपने वर्तमान के शिलाखंड पर चढ़ कर अपने अतीत का सिंहावलोकन कीजिए, कितने आए- गए अथवा, आप कितने के यहां आए-गए ? सभी कुछ हुआ। स्टेशन बदलते रहे। सभी स्टेशन पर की उपलब्ध सुविधाओं के आधार पर ट्रेन की ठहराव का समय कम-बेसी थे। गाड़ी उन स्टेशन पर अधिक देर ठहरी जो बेहद साफ – सुथरा, चकाचक रोशनी और प्लेटफॉर्म पर सामने A H Wheeler का सजा-धजा बड़ा सा बुक स्टॉल दिखता था(अब नहीं,AH wheeler तो कब के गए !)। यही जीवन का दर्शन है। आजकाल और पहले भी ‘वह’ लाइफ मैनेजमेंट या लाइफ इंज्वॉय का एक हिस्सा है।
श्री कृष्ण के जीवन का एक अंश सुदामा के साथ बीता था। मगर, वहां वह बात नहीं थी जो महाकवि दिनकर ने कर्ण में देखी थी।
भगवान कृष्ण ने तो सोचा होगा, अरे काहे का दोस्ती! दुर्योधन भी भला कोई दोस्ती के लायक है! अभी कर्ण को समझाता हूं, कर्ण ! तुम पांचों पांडवों से बड़े हो। उनका अग्रज हो। कुंती तुम्हारी मां है। तुम समझ क्या रहे हो कर्ण, तुम इस वसुधा को भोगने वाला एक मात्र समर्थ योद्धा हो। कौन होता है दुर्योधन, बताओ कौन है दुर्योधन ?
कर्ण ने जवाब दिया, ” दुर्योधन इज माई बेस्ट फ्रेंड ! भगवन्,दुर्योधन मेरा दोस्त है।”
आगे, कर्ण का गला रूंध गया बिलखता हुआ बताया “ कर्ण मेरा मित्र है प्रभो, मित्र है!”
“मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ,
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ!
सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर,
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?”
– रामधारी सिंह दिनकर
आभासी दुनिया के मेरे मित्रो! अवश्य अवगत कराइयेगा, आज के रविवार का यह लेख कैसा रहा?