विनाश
खुशवीर मोठसरा -विनायक फीचर्स
प्रस्तुति- सुरेश प्रसाद आजाद
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जिसकी नीयत साफ होती है भगवान उसका रक्षक होता है। दादाजी की यह कहावत देवेश पर पूर्ण रूप से लागू होती है। इसी वजह से आज देवेश की मौज ही मौज है। अस्सी एकड़ जमीन का जमींदार, गांव में सबसे बड़ा मकान, उस पर सबसे ऊंचा दरवाजा, दरवाजे के आगे खड़े ट्रैक्टर जहां मकान की शोभा बढ़ाते प्रतीत होते हैं वहीं दरवाजे में दस पांच आदमी हुक्के का धुंधा उड़ाते नजर आते है। परंतु यहां तक पहुंचने के लिए देवेश को बहुत मेहनत करनी पड़ी है।
देवेश के पिताजी रितेश बड़े कर्जदार थे। मां जन्म देते ही चल बसी। वक्त बेवक्त सूखी रोटियों के सहारे देवेश ने जीने की शुरुआत की तो चारों तरफ गरीबी ही गरीबी का बोलबाला था। जमीन का लगान नहीं दिया गया तो जमीन गिरवी रखनी पड़ी। देवेश के होश संभालने के बाद दिन रात मेहनत करके, कच्चे मकान की जगह आलीशान मकान का निर्माण किया। कहते हैं कि प्रत्येक कामयाब पुरुष के पीछे एक औरत का हाथ होता है। देवेश की घरवाली के कदम घर में पड़ते ही देवेश ने दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की की।
बड़ा बेटा उमेश बिल्कुल देवेश पर गया है। काम करने में इतना माहिर कि पूछो मत। घर बाहर के काम के अलावा खेती बाड़ी के काम को भी बखूबी संभालता है उमेश। अपनी मां को कोई भी काम नहीं करने देता सभी काम स्वयं करता है। इसलिए पड़ोसी सब कहते हैं-उमेश मां के लिए लड़की और पिताजी के लिए लड़का है। छोटा बेटा सत्येश सारे गांव में सबसे तेज पढ़ाई में जाना जाता है। एक साल पहले सत्येश को चश्मा लगा तो उसकी मां को बहुत दुख हुआ। सारा दिन सारी रात इन मोटे-मोटे ग्रंथों मेंं पता नहीं क्या ढूंढता रहता है, बहुत पढ़ लिया, अब क्या सारी उम्र पढ़ता ही रहेगा। सत्येश की मां उलाहने भरे स्वर में कहती। सत्येश मां को खुश करने के लिए एक बार किताब बंद कर देता। जैसे ही मां का भाषण बंद होता वह पुन: पुस्तक खोलकर पढऩे में मस्त हो जाता। सत्येश की मां बेटे के आगे पीछे दूध तो कभी दही के कटोरे लिए घूमती रहती परंतु सत्येश को केवल पढऩे की धुन सवार थी।
एक दिन देवेश खेत में से चारे का गठ्ठा लेकर घर पहुंचा ही था कि डाकिया ने एक चिट्ठी उसको थमा दी। गट्ठे को जमीन पर गिरा देवेश ने चिट्ठी सत्येश को देते हुए कहा-‘बेटे देखो तो किसकी चिट्ठी और कहां से आई है।‘ सत्येश ने चिट्ठी खोल के देखी तो देखता रह गया। उस चिट्ठी में सत्येश के सपने थे जो उसने रातों के गहन अंधकार में अपनी छत पर, चौबारे में देखे थे। चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते जब सत्येश ने आंखें बंद की तो उसको अपने घर के आंगन में ‘डालर’ बरसते नजर आए। सत्येश तो और भी देर तक सपनों में बैठा रहता यदि उसकी मां उसके कंधे हिलाकर नहीं पूछती कि ‘बेटा ऐसा क्या आ गया चिट्ठी में हमें बतलाओ तो सही।‘सत्येश मां के गले लगकर बोला-मां आज सारी मेहनत सफल हो गई, सारे सपने पूरे हो गए। दुनिया के सबसे खूबसूरत देश अमेरिका में मुझे नौकरी मिल गई मां। मां को भी बहुत खुशी हुई, देवेश एवं उमेश भी खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। बात सारे गांव में फैल गई कि देवेश के बेटे सत्येश को अमेरिका वालों ने बुला लिया है।
देवेश ने काफी कुछ सोच विचार करके कहा-‘सत्येश दूसरे देश में नौकरी के लिए नहीं जाना। हमारे यहां किस चीज की कमी है। दूसरे घर से बाहर वे जाते हैं जिनके अपने घरों में कुछ नहीं होता। उमेश ने भी पिताजी की बात का समर्थन करते हुए कहा-‘भाई सत्येश अपने यही कोई नौकरी देख ले। वहां अपने खान-पान, तीज-त्यौहार के लिए तरस जाएगा तू।‘ सत्येश यह सुनते ही एकदम उछल पड़ा और बोला- ‘इन सबसे हटकर भी बहुत कुछ होता है।
जिंदगी में इंसान को पैसे, सुख सुविधा, वैभव की भी जरूरत होती है, जो आज मुझे इस चिट्ठी के मार्फत मिल रही है। मां को कुछ समझ नहीं आ रहा था वह बोली- ‘आप इसे नौकरी करने से क्यों मना कर रहे हो, ये सुबह जाएगा शाम को घर आ जाएगा।‘ यह सुनकर देवेश ने अपना सिर पकड़ लिया आौर कहा-‘अमेरिका दिल्ली के पास है जो रोजाना आ जाएगा। सात समुंद्र पार है अमेरिका।‘ सत्येश के सपनों के सामने मां-बाप के लाड़-प्यार हार गए। अपनी मिट्टी व खेतों की खूशबू फीकी पड़ गई। सत्येश ने अपना फैसला सुना दिया। ‘पिता जी आप लोग खुशी-खुशी मुझे जाने दे या नाराजगी से मुझे अमेरिका जाना है, किसी भी कीमत पर।‘ जिस मां ने सत्येश को कभी अकेला खेत तक नहीं जाने दिया जब उस मां को पता चला कि सत्येश सात समुंद्र पार जाने लग रहा है तो वह पगला गई। सत्येश जब चलने लगा तो पूरा गांव इकट्ठा हो गया उसे विदाई देने। मां उस दिन बहुत रोई और इतना रोई कि आस-पड़ोस के लोगों के दिल भी पसीज गए और आंखें भर आईं। राम के बनवास के समय कौशल्या का रुदन भी मानों इसके आगे कम पड़ गया था। लेकिन बेटे को जाना था, चला गया। बस स्टैंड से बस में बैठकर रवाना होने लगा तो सत्येश ने उमेश से कहा- ‘भाई मां का ख्याल रखना’
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देवेश की पत्नी ने चारपाई पकड़ ली। पहले खाना पीना कम हुआ बाद में बिल्कुल छूट गया। सत्येश के चौबारे में बड़ी-बड़ी कारों के पोस्टर अब भी यूं ही लगे हुए थे। सत्येश के सपने उसकी नौकरी और इन फोटो की कड़ी को जोड़ा तो उमेश को बात समझने में देर नहीं लगी। लेकिन उमेश यह नहीं समझ पा रहा था कि ये सब बातें मां को कैसे समझाए। तीन महीने बाद सत्येश की चिट्ठी आई उसमें लिखा था-‘प्यारी-प्यारी मां अमेरिका के सबसे सुंदर शहर में दफ्तर मिल गया है। लंबी कार में दफ्तर जाता हूं। मकान भी बड़ा सा है। मां यहां धूल और गंदगी बिल्कुल नहीं है। मां मैं आपको कैसे बताऊं कि मैं यहां किते ठाठ-बाठ से रह रहा हूं। चिट्ठी ने फिर याद ताजा कर दी। घर का माहौल फिर किसी मातम जैसा हो गया।
उमेश खेत संभालता तो देवेश अपनी पत्नी को। वह रो पड़ती तो साथ में देवेश भी रो पड़ता। कभी-कभी उसको धमका भी देता। बस अब क्या उसके साथ मरने का इरादा है। जाने वालों के साथ कभी जाया जाता है। इसी तरह करते-करते साल कब गुजर गया किसी को पता ही नहीं चला। सत्येश की मां सूखकर लकड़ी हो गई। डाक्टरों को बहुत दिखाया लेकिन उन्हें कोई बीमारी नहीं मिली। सदमा कहकर वे अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेते। एक दिन सत्येश की मां की हालत काफी नाजुक हो गई। उसने पति देवेश को पास बुलाकर कुछ कहना चाहा, उसी दौरान उमेश ने मां को पानी पिलाया। पानी पीकर उसने कहा- ‘आज सपने में सत्येश मेरी गोद में बैठा हुआ था और मुझसे कह रहा था-‘मां मुझे घी अच्छा नहीं लग रहा है, इसको खाने में से हटा दो। यह सुन देवेश की सफेद मूंछे आंसूओं से गीली हो गई। उमेश डाक्टर को लेकर आया। उसकी मां की सांस उखड़ी हुई थी। दो बार सत्येश का नाम लिया और गर्दन एक तरफ लुढ़क गई। देवेश ने अपने कंधे से उठाकर सफेद चादर पत्नी के शरीर पर डाल दी। उमेश आज बिन मां के हो गया।
पूरे गांव में देवेश की पत्नी की मौत की खबर आग की तरह फैल गई। लोग अंतिम संस्कार के लिए जुटने लगे थे। लोग आपस में बात कर रहे थे-‘मां हो तो ऐसी बिना बेटे के जिसने जीना ही नहीं चाहा। मां-बेटे का इतना पे्रम हमने आज तक नहीं देखा।‘
सत्येश के पास खबर कर दी गई। अंतिम संस्कार के लिए उसका इंतजार किया। पूरा दिन पूरी रात गुजर गई। अगले दिन पड़ोस के मास्टर जी के पास फोन भी आया और तार भी आया। फोन तो चाचा जी ने सुना, पता नहीं क्या बात हुई वो तो वे ही जानते हैं लेकिन तार तो हमने भी पढ़ा था जिसमें लिखा था-‘मां चली गई, बहुत दुख हुआ है सुनकर। फिर भी मैं इस हालात में नहीं हूं कि मां की अंतिम विदाई में शामिल हो सकूं। काम रुक जाएगा, नुकसान होगा। मां की कोई निशानी कोरियर से भिजवा देना दर्शन कर लूंगा।
देवेश ने तार मोड़-तरोड़ कर जेब में डाल लिया और एकदम खड़ा होकर बोला-‘उमेश अब और देर मत करो।‘ चार जवानों के कंधों पर उमेश की मां की अर्थी थी और पीछे आदमियों का रेला। देवेश हाथ में अग्नि लिए चल रहा था। गांव की गलियों से अर्थी जब श्मशान घाट की तरफ जा रही थी तो एक बुजुर्ग अपने घर के दरवाजे पर रस्सी बांट रहा था। उसके साथ एक छोटा बच्चा बैठा खेल रहा था। बुजुर्ग अर्थी देखकर खड़ा हो गया। उसने अर्थी को नमन किया, उनके गुजरने के बाद बुजुर्ग अपने काम में पुन: लग गया। साथ खेल रहे बच्चे ने पूछा-‘दादा ये क्या था? बुजुर्ग ने थोड़ी देर सोचा फिर लंबी सांस लेकर कहा-‘एक हंसते-बसते परिवार का विनाश।‘ अब इतने छोटे बच्चे को क्या पता कि परिवार का विनाश क्या होता है। ‘ (विनायक फीचर्स)