अभावों के बीच

डॉ. परमलाल गुप्त-विनायक फीचर्स

-प्रस्तुति-  सुरेश प्रसाद आजाद

जिन्दगी बहुत बड़ी है। बेरोजगारी ने इसे और बड़ा बना दिया था। मैं अक्सर उसे विविध रूपों में देखने की कोशिश करता था।

जहां मैं रहता था, वहां चार किरायेदार रहते थे। एक किसी दुकान में मुनीम था, दूसरा कारखाने में मजूरी करता था और तीसरी एक बेवा औरत थी, जो एक गुजराती के सैकड़ों के हिसाब में पापड़ बेल कर अपना और अपने छह वर्षीय पुत्र का पेट पालती थी। ये सब मेरा सम्मान करते थे, क्योंकि मैं पढ़ा लिखा था। मेरे कमरे में कपड़ों के नाम पर एक चटाई थी और बर्तनों के नाम पर एक सुराही। मैं अक्सर भुने हुए चने खरीद लाता था। जब और कोई चारा न होता और पेट की आंते कुलबुला उठती, तब मैं थोड़े से चने चबाकर ऊपर से कई गिलास पानी पी लेता था। कभी-कभी उस बेवा औरत का वह पुत्र मेरे कमरे में आ जाता। मैं उसे चने देता था, यही उसका आकर्षण था। वह बेवा औरत बहुत शालीन थी। उसके पति को मरे हुए चार वर्ष हो चुके थे, परंतु उसे किसी मर्द के साथ हंसते या मजाक करते हुए किसी ने नहीं देखा। कभी-कभी वह लड़के से मेरा हाल पूछ लेती थी, ऐसा मुझे लड़के की बातों से विदित हो जाता था।

उस दिन एक अखबार से मेरी कहानी के दौ सो रूपये आ गये थे, इसलिये एक स्फूर्ति आ गयी थी। मैं सारे  दिन सड़कें नापता रहा। एक दो बार होटल में चाय पी। तंदूर की  रोटियां खाईं। जब थक कर चूर हो गया, तब अपने कमरे की बढ़ा।

तब तक काफी रात बीत गयी थी। शायद 12 बज गये थे। मेरा अंग-अंग टूट रहा था। इसलिए चुपचाप चटाई में गिर पडऩा चाहता था लेकिन जैसे ही मैं सीढिय़ां चढ़कर अपने कमरे की ओर मुड़ा, बगल के कमरे से सिसकियां सुनाई दीं। फिर उस बच्चे की आवाज-‘मुझे खाने को दो, मुझे भूखे नींद नहीं  आती।‘उत्तर में उसकी मां का क्षोभ और आक्रोश से भरा स्वर-‘कह दिया कि चुपचाप सो जा। आज घर में कुछ नहीं है। अगर अब रोया तो घर के बाहर निकाल दूंगी।‘ इसके बाद आंसुओं में घुटी हुई आवाज मेरे अंतर को गहराई से बींधने लगी। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने किवाड़ खटखटाया। उत्तर में सन्नाटा छा गया, जैसे चुप्पी के अलावा अन्य किसी का अस्तित्व न हो। कुछ प्रतीक्षा के बाद मैंने पुन: सांकल बजा दी। उस बेवा औरत, जिसे अब शांता कहूंगा, ने किवाड़ खोल दिये। अभी तक मेरी कोई बातचीत उससे नहीं हुई थी।

कमरे का दृश्य देखकर आतंकित हो उठा। कमरे में उन दो प्राणियों के अलावा जैसे और कुछ नहीं था। उरसा, बेलन, तवा और मिट्टी के कुछ डबले थे। एक कोने में फटी कथरी बिछी थी। कपड़े वही थे जो वे पहने हुए थे। शांता के बदन पर एक गाढ़े की धोती और बच्चे के बदन पर एक शर्ट। शांता के गोरे रंग की चमक उस गाढ़े की धोती से भी फूट रही थी। दोनों के मुख गहरी उदासी से लटके हुए थे और सूखे आंसुओं की लकीरें ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे गर्मी के मौसम में सूखी हुई रेतीली नदी।

मैंने बच्चे को गोद में उठा लिया। वह फफक-फफक कर रोने लगा। मैं उसे  लेकर अपने कमरे में गया। और कुछ तो था नहीं। एक कागज में उसे चने दिये। वह चुप हो गया। मैं पुन: शांता के कमरे में आ गया।

शांता चुपचाप खड़ी थी। मैंने कहा-‘मैं आपका पड़ोसी हूं। आप मुझे गैर न समझें। हालांकि मैं बेकार हूं, फिर भी दुख-तकलीफ में कुछ तो हाथ बंटा सकता हूं। आपने मुझसे क्यों नहीं कहा?’  

शांता को अपनी स्थिति उघडऩे की ग्लानि हो आयी। इसलिए वह संकुचित स्वर में बोली-‘ऐसी पहले कोई बात नहीं थी। अभी पन्द्रह दिन से पापड़ वाला काम छूट गया है और कोई काम मिला नहीं।‘  

मैंने यों ही पूछ लिया-‘पापड़ का काम क्यों छूट गया?’   शांता कुछ उत्तेजित हो उठी। बोली-‘बात यह है भाई साहब कि दुनिया में औरत होना पाप है। लोग ईमानदारी से मेहनत करके खाने वाली औरत को बर्दाश्त नहीं कर पाते। बस और कुछ नहीं।‘ 

मैंने शांता की बात से अनुमान कर लिया कि जरूर उस गुजराती के लड़के ने कुछ गड़बड़ किया है। पापड़ लेने और देने वही आता था और वह हसरत भरी निगाह से शांता को घूरा करता था। मेरे मन में उसके प्रति आक्रोश घुमड़ आया। शांता को सुरक्षा देने की भावना से मेरा मन उद्वेलित हो उठा। मैंने अपनी जेब से बाकी बचे हुए  रूपये निकाल कर शांता की ओर बढ़ाते हुए कहा: ‘लीजिये, ये अभी रख लीजिये और चिंता न कीजिए। सब ठीक हो जायेगा।‘  

शांता ने रूपये लेने का उत्साह नहीं दिखाया। उसने कहा-‘नहीं, भाई साहब, अगर आप मेरी मदद कर सकते हैं, तो कोई काम दिलवा दीजिये।‘  

मैं समझ गया कि इससे शांता के स्वाभिमान को धक्का लगा है। अत: मैंने उसके स्वाभिमान की रक्षा के लिये कह दिया-‘अच्छा ठीक है, कल से काम करना। ये रूपये उसी का एडवांस है।‘  

शांता ने ‘धन्यवाद’ के साथ रूपये ले लिए। मैं जानता था कि मैं  जब खुद बेकार हूं तो शांता को क्या काम दिलाऊंगा?  लेकिन मेरे मन में परितृप्ति थी। बच्चा तब तक सो गया था। मैं अपने कमरे में लौट आया। शांता ने किवाड़ बंद कर लिये।

रात में मुझे नींद नहीं आयी। काफी उधेड़ बुन के बाद मैंने निश्चय किया कि कुछ भी हो, मैं नौकरी पाकर ही रहूंगा। अत: मैं बड़े सबेरे कमरे से बाहर निकल आया। काफी देर इधर-उधर घूमता रहा। एक स्थानीय अखबार में मेरी कहानी छपी थी। ठीक साढ़े दस बजे उस अखबार के दफ्तर पहुंच गया और जरूरत बताकर पारिश्रमिक की मांग की। वहां से भी सौ रूपये मिल गये। रूपये जेब में रखकर बाहर निकल आया। मेरा अंतर्मन बुझा हुआ था, लेकिन कर्तव्यपालन का एक उल्लास था, जो मेरे हर अंग से छिटक पड़ता था। जगह-जगह के पोस्टर और साईन बोर्ड पढ़ता हुआ मैं मोती पार्क में आ गया। आसमान में इक्के-दुक्के बादल विचरण कर रहे थे। लेकिन धूप इतनी तेज थी, जैसे सूर्य बादलों के परकोटे से शर-संधान कर रहा हो।

सूर्य ढलने पर मैं अपने कमरे में लौटा। शांता की मीठी झिड़की सुनायी दी-‘सबेरे से आपका पता नहीं। दिन भर हो गया, न खाने पीने का ख्याल और न अपनी सेहत का। कब से इंतजार कर रही हूं। खाना रखे-रखे ठंडा हो गया। हाथ मुंह धोकर आओ, गर्म किये देती हूं।‘  

‘अरे, मेरे लिए आपने बेकार कष्ट किया।‘  मैंने औपचारिकतावश कहा। लेकिन मन में एक गुदगुदी होने लगी। भूख भी कुलबुला उठी। मैं हाथ मुंह धोकर शांता के कमरे में आ गया।

शांता ने खाना परोस दिया। उसकी आंखों से जो आत्मीयता छलक रही थी, उससे मुझे परितृप्ति हुई। मैंने अनायास पूछ लिया-‘शांता तुम कहां तक पढ़ी हो?’ 

‘आप’  से  ‘तुम’  पर आना शायद शांता को अच्छा ही लगा। वह दृष्टि जमीन पर गाड़े बोली- ‘मैंने मेट्रिक पास किया था, लेकिन यह भी कोई पढ़ाई है क्या?’  

मेरी आंखों में खुशी नाच उठी। मैंने सोचा-शांता बहुत जल्दी कोई बात ग्रहण कर सकती है। पृष्ठभूमि तैयार है, उसे दिशा भर देना है। इसके साथ ही मेरे मन के किसी कोने में सोई हुई वासना ने करवट ली-शांता एक अच्छी साथिन बन सकती है। फिर विचार आया कि कहीं मैं उसकी विवशता का नाजायज फायदा तो नहीं उठाना चाहता। इस उहापोह में शांता तिरछी दृष्टि से मुझे ताक रही थी। वह शायद निराश हो गयी थी। इसलिए पूछ बैठी-‘मेरे लिए कोई काम देखा क्या?’ 

मैं सजग होकर बोला-‘शांता, तुम आगे पढ़ डालो। साथ ही मेरी कहानियों की नकल कर दिया करो। तुम्हें लिखने का दो रूपया प्रति पेज मिलेगा।‘  

शांता मेरी बात के भीतरी अर्थ को समझ गयी। वह कहीं गहराई में पैठ गयी। बाहर उदासी का एक घेरा बन गया। मैंने उस घेरे को तोड़कर शांता के मन में उतरने की बहुतेरी कोशिश की, परंतु असमर्थ रहा।

दूसरे दिन उसके बच्चे को स्कूल पहुंचा आया। शांता कुछ न बोली।   मैं शांता के भाव को किसी प्रकार पकड़ न सका। वह बिल्कुल निर्विकल्प दिखायी दे रही थी।

मैंने अपनी पुरानी कहानियों को क्रम से लगाया। एक कहानी शांता की ओर बढ़ाकर कहा-‘नकल करके देखना।‘ 

शांता ने कहानी ले ली। परंतु कहा-‘क्या मुझसे नकल करते बनेगी।‘

मैंने शांता की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। न उसने इसकी कोई अपेक्षा ही की। जब मैं तैयार होकर जाने लगा, तब कहानी के आज मिले रूपये भी शांता को दे दिये और कहा-‘इस महीने किसी तरह चलाना होगा। अगले महीने से सब ठीक हो जायेगा। और हां, टिंकू को स्कूल से ले आना। मैं पांच बजे लौटूंगा।‘  

शांता उसी तरह तरह गंभीर बनी रही। मूक स्वीकृति के रूप में उसने थोड़ा सिर अवश्य झटका। उस समय उसके मुख पर उदात्त भाव बिखर रहा था, उसकी प्रभा मेरे अंत: करण में उतरती गयी।

दिन बीतते रहे। मेरी आवारा जिंदगी अब नियमित बन गयी। मैं प्रतिदिन शांता को पढ़ाने लगा। शांता के मन की ग्लानि दूर हो गयी। उसके मुख पर उल्लास की चमक छिटकी रहने लगी। इससे उसके सौन्दर्य में असाधारण वद्घि हो गयी। 

कभी-कभी उसके सौन्दर्य में मैं इतना खो जाता कि उसके मुख को एकटक देखता रहता। पढ़ाने का क्रम टूट जाता। फिर मेरे मन में एक कचोट उठती  कि शायद मैं एक विवश नारी से अपनी सहायता का प्रतिदान चाहता हूं। शांता को अध्ययन का सुफल मिल रहा था। वह बहुत अच्छा लिखने लगी थी और गंभीर बातों पर बड़े सहज ढंग से बात कर सकती थी। उसके लिये शायद सब कुछ सहज था। कहीं कोई कुंठा नहीं थी। लेकिन उसके जीवन में आसक्ति और अनासक्ति को समझ पाना बड़ा कठिन था। इधर मुझे और शांता को लेकर मुहल्ले के लोग छींटाकसी करने लगे थे। मेरी बेरोजगारी और शांता की भुखमरी पर किसी ने कुछ नहीं कहा। भूख से दम तोड़ते हुए बच्चों, शरीर बेचती हुई औरतों और एक टुकड़ा रोटी के लिए बंधक में रखी गयी आदमियों की जिंदगियों के लिए कोई कुछ नहीं कहता। इस स्थिति को अधिक नहीं सहा जा सकता था। इसके लिये दो ही उपाय थे-या तो मैं शांता को अपने हाल पर छोड़ दूं या उसे विधिवत पत्नी के रूप में स्वीकार करूं। शांता से कोई बात कहना मुश्किल था। इसलिए मैंने दूसरे रूप में शांता से कहा, ‘मैं यह कमरा छोडऩा चाहता हूं।‘  शांता मेरी ओर फटी-फटी नजरों से देखने लगी। मैंने आगे जोड़ दिया-‘तुम चाहो तो नये कमरे में मेरे साथ रहो, चाहो यहीं रहो। मुझे सदा अपना ही समझो। मेरी भावना में कोई फर्क न होगा।‘  शांता बहुत देर तक मौन रही। मैंने भी यह उपयुक्त समझा कि शांता अपने जीवन के विषय में अच्छी तरह सोच ले। वह शांत स्वर में बोली-‘जहां आपको खुशी हो, वहीं रहिए। मैं अब यह कमरा छोड़कर कहां जाऊंगी? दुनिया सब जगह उसी तरह है।‘  मुझ पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया। मैंने देखा कि शांता मुझसे बहुत ऊंची है। इतनी ऊंची कि मेरी कल्पना की आंखें झपक जाती हैं। (विनायक फीचर्स)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *