(सुरेश पचौरी-विभूति फीचर्स)

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु के दस प्रधान अवतार हुए हैं । भगवान परशुराम इनमें से छठवें अवतार माने जाते हैं । भृगुवंश को यह गौरव प्राप्त है कि इस वंश में ईश्वर का अवतार हुआ । ईश्वर का यही एक अवतार है जो ऋषिकुल में हुआ । वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि (अक्षय तृतीया) के दिन महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका के यहां भगवान परशुराम का जन्म हुआ । भगवान परशुराम सप्त चिरंजीवियों में से एक हैं । उनकी पितृ भक्ति सर्वविदित है । भगवान परशुराम का जीवन वृत्त एक ऐसे युग पुरुष की शौर्य गाथा है जिसने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ सतत् संघर्ष कर न्याय, नीति और धर्म का शासन स्थापित किया ।
महर्षि जमदग्नि ने परशुराम जी को वेदों का अध्ययन कराया । कश्यप ऋषि ने उन्हें मंत्र दीक्षा दी । उन्होंने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की अराधना की । परशुराम के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें समस्त दिव्यास्त्र प्रदान किये, उनमें परशु (फरशा) प्रमुख था । परशु धारण करने के कारण उनका नाम परशुराम पड़ा ।
शास्त्र प्रमाण के अनुसार भगवान परशुराम ने प्रभु श्री राम को दिव्य धनुष प्रदान किया जिससे उन्होंने रावण का वध किया । उन्होंने श्री कृष्ण को सुदर्शन चक्र प्रदान किया । भगवान बुद्ध को परम ज्ञान भी भगवान परशुराम की तपोस्थली गया जी में प्राप्त हुआ । भविष्य में कलियुग में धर्म की स्थापना तथा अत्याचारियों के विनाश के लिए ‘’कल्कि अवतार’’ होगा जिन्हें शस्त्र एवं शास्त्र की दीक्षा भगवान परशुराम ही देंगे । महाभारत में इस बात का उल्लेख है कि भीष्म पितामह, गुरूद्रोण तथा कर्ण को शस्त्र विद्या का ज्ञान भगवान परशुराम ने ही दिया था ।

भगवान परशुराम पंचमहावीर के नाम से भी विख्यात हैं। पराक्रम महावीर, दयावीर,दानवीर, धर्मवीर एवं विद्यावीर । गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण में भगवान राम और परशुराम के संवाद का वर्णन करते हुए लिखा है :-
*‘’नाथ शंभु धनु भंजन हारा, हुई है कोऊ एक दास तुम्हारा’’ ।*
अर्थात भगवान श्री राम ने स्वयं परशुराम जी को अपने पूज्य की संज्ञा प्रदान की ।
परशु प्रतीक है पराक्रम का, और राम पर्याय हैं सत्य, सनातन के । अत: परशुराम का अर्थ हुआ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक।शस्त्र प्रतीक है नियंत्रण का, शास्त्र प्रतिनिधि है सृजन का । शस्त्र से ध्वनित होती है शक्ति तथा शास्त्र में प्रतिबिम्बित होती है शांति । परशु से झलकता है पुरूषार्थ और राम के मायने है परमार्थ । अर्थात पुरूषार्थ के प्रवाह से और परमार्थ के निर्वाह का नाम है ‘’परशुराम’’।
भगवान परशुराम का अवतरण ऐसे समय में हुआ जब पृथ्वी पर निरंकुश, अत्याचारी राजाओं से प्रजा दुखी थी । मंदाध राजा सहस्त्रबाहु ने परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि के आश्रम को तहस-नहस कर दिया एवं वह उनकी कामधेनु गाय को छीनकर ले गया । परशुराम एवं सहस्त्रबाहु के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें परशुराम जी ने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया । एक दिन भगवान परशुराम जी की गैर मौजूदगी में सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी । मां की आर्त् पुकार सुनकर परशुराम जी ने आततायियों के संहार का संकल्प लिया तथा सहस्त्रार्जुन के पुत्रों सहित उन सभी राजाओं का वध कर दिया जो अन्यायी निरंकुश तथा राजधर्म से विमुख थे । भगवान परशुराम ने केवल उन्हीं राजाओं को दण्डित किया जिनके राज्य में न तो विद्या की सेवा थी, न ही तप का सम्मान था, और न ही सत्य का शासन था । इन दुराचारी राजाओं का संहार कर उन्होंने इनके स्थान पर योग्य, सदाचारी एवं धर्मानुकुल शासन करने वालों को बैठाकर पृथ्वी पर शांति और विधि व्यवस्था कायम की ।
कई बार इतिहास और लोक गाथाओं में अपने नायक की कीर्ति बखान करने के लिए अतिरंजक बातें नत्थी कर दी जाती हैं । परशुराम जी के साथ भी यही हुआ, इस पराक्रमी योद्धा के लिए कहा गया कि उन्होंने इक्कीस बार आर्यावर्त को क्षत्रिय विहीन कर दिया । यह भ्रामक है । परशुराम जी ने सिर्फ अत्याचारी एवं राजधर्म से विमुख राजाओं को ही दण्डित किया था । अगर परशुराम जी ने सभी क्षत्रिय राजाओं का वध किया होता तो राजा दशरथ, राजा जनक और भी कई तत्कालीन क्षत्रिय राजा उस काल में नहीं होते । परशुराम जी संहार और निर्माण दोनों में कुशल थे । उन्होंने जाति नहीं अवगुण का विरोध किया था ।
भगवान परशुराम के अवतार का उदेश्य सहस्त्रबाहु या अन्य राजाओं का संहार कर पृथ्वी पर शांति व धर्म का राज्य स्थापित करने तक ही सीमित नहीं था, उन्होंने इससे भी अधिक कई महत्वपूर्ण काम किये । उन्होंने ऋषियों के सम्मान की रक्षा की और यह तथ्य स्थापित किया कि ज्ञान और तप का सम्मान सबको करना ही होगा । भगवान परशुराम महादानी थे । उन्होंनें सारी पृथ्वी जीतकर महर्षि कश्यप को दान में दे दी तथा स्वयं तपस्या करने महेन्द्र पर्वत पर चले गये । परशुराम जी ने भगवान दत्तात्रेय से दीक्षा प्राप्त कर भगवती त्रिपुरा की उपासना का लोक में प्रचार किया । उन्होंने ऋषिपत्नि अनुसुईया तथा लोपामुद्रा के सहयोग से नारी जागृति अभियान चलाया । युद्धकाल में हुए निराश्रित बच्चों तथा विधवा नारियों के जीवन यापन की व्यवस्था करवाई । उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रतिभा के अनुरूप काम मिलना ही चाहिऐ ।
सिद्धांतत: परशुराम जी एक ऐसा सशक्त विचार हैं जो उच्चतम नैतिक व्यवस्थाओं की नींव पर ऐसे भारतीय समाज की संरचना चाहते है जो ब्रम्हतेज तथा छात्रतेज से भरपूर हो । भगवान परशुराम न्याय के देवता हैं । वे जनकल्याण के महानायक हैं । वे किसी एक जाति के नहीं अपितु सर्व समाज के महानायक हैं ।

अक्षय तृतीया भगवान परशुराम का अवतरण दिवस है । अक्षय तृतीया का सर्वसिद्धि मुहूर्त के रूप में विशेष महत्व है । इस दिन का प्रत्येक पल पवित्र है।अक्षय तृतीया का अर्थ होता है कभी क्षय नहीं होने वाला समय । पुराणों में इस बात का उल्लेख है कि इस दिन पितरों के तर्पण, दान, स्नान, जप और तप का अक्षय पुण्य मिलता है । यह दिन शुभ कर्म एवं मागंलिक कार्य करने का दिन है ।
भगवान परशुराम अतीत के गौरव ही नहीं बल्कि आज के सामाजिक दौर में वे और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं । वे एक ऐसे प्रेरणापुंज है जिनकी शिक्षाओं और आदर्शो पर चलने से समाज में नई रोशनी का संचार होता है । नीति, साधना, शक्ति और युक्ति से जीने का सूत्र ही भगवान परशुराम का संदेश है । इसी मूलमंत्र से व्यक्ति का समग्र विकास होगा, परिवार गुणी एवं समृद्ध होगा, समाज सुसंस्कृत होगा तथा सभी समाज, राष्ट्र की समग्र शक्ति बनेंगे । हम उनके साहस, त्याग, तपस्या और संगठन शक्ति का अनुसरण करें, यही भगवान परशुराम की सच्ची आराधना होगी । *(विभूति फीचर्स)(लेखक पूर्व केन्द्रीय मंत्री हैं।)*