श्रीमती प्रभा श्रीवास्तव- विभूति फीचर्स प्रस्तुती – सुरेश प्रसाद आजाद
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महिला जगत
भारतवर्ष लोकतंत्र प्रणाली पर आधारित एक कल्याणकारी राष्ट्र है जिसका संविधान स्त्री-पुरुष दोनों को समानता का अधिकार देता है। आज हम विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुंच गये हैं। निश्चित ही इस प्रगति की दौड़ में महिलाएं पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, लेकिन खेद है कि समाज में स्त्री की अपनी पहचान नगण्य है।
देश का विकास जिस दिशा में हो रहा है प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी पर्याप्त हो रहा है, लेकिन इस विकास में महिलाओं का तालमेल नहीं है। अगर दो-चार महिलायें आगे आ भी गईं तो क्या इसे हम विकास की दिशा में सही मान सकते हैं? सामाजिकीकरण की प्रक्रिया में बालिकायें बचपन से अपने आपको कमजोर व उपेक्षित मानकर उसी मानसिकता को आत्मसात कर लेती हैं। बस यहीं से शुरू होता है स्त्री के व्यक्तित्व का ह्रास। महिलाओं को समाज के विधान से चलाया जाता है। महिलाएं छोटे-छोटे घरेलू उद्योगों से अवश्य जुड़ी हैं, मिट्टी के बर्तन, चटाई तथा बान बांटना, बांस का सामान, खानाबदोश महिलायें जो लोहे के चिमटा, झारा, हंसिया तैयार करती हैं। खेतिहर महिलायें जो खेती में प्राय: कटाई, गुड़ाई, बुआई जैसे कार्य पुरुषों की बराबरी से करती हैं लेकिन किसान नहीं कहलाती। गगन चुंबी इमारतों को बनाने में महिलाओं का योगदान नकारा नहीं जा सकता। इनमें कार्य करने की क्षमता तथा लगन पुरुषों की अपेक्षा अधिक हुआ करती है। इनकी कार्य करने की शैली में निरंतरता होती है, क्योंकि ये बीड़ी, सिगरेट पीने नहीं बैठती, फिर भी ये ठेकेदारों द्वारा कम मजदूरी प्राप्त करती हैं और ये कारीगर नहीं कहलाती हैं। ये महिलायें असंगठित श्रम का हिस्सा होती हैं। बड़ी संख्या में ये महिलायें शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे-बड़े उद्योगों में कार्य कर रही हैं, रंगाई कपड़ा, छपाई, बुनाई, दियासलाई, विस्फोटक आतिशबाजी का निर्माण, अभ्रक काटना-तोडऩा, धातु, शीशा-पारा, मैंगनीज, क्रोमियम, बेंजीन और कीटनाशक जैसी चीजों के निर्माण प्रक्रिया में कार्य करती हंै। लेकिन हम देखते हैं कि उनकी सारी उपलब्धियों का दायरा सीमित है। समाज में महिलाओं को भाग्यवादी, रूढि़वादी, सामंती परंपराओं ने जकड़ रखा है। सामंती विचारों एवं रूकावटों का विरोध महिलायें नहीं कर पाती हैं। अपर्याप्त सुविधाओं से ये कुपोषण का शिकार हो जाती हैं। आज भी ये शारीरिक-मानसिक रूप से आजाद नहीं हैं। चुनौती भरे माहौल में महिलाएं अपनी प्रतिभा का अहसास भी करा रही हैं। पितृसत्तात्मक समाज में नारीवादी सोच लेकर आगे बढऩे में महिलाओं को कड़े विरोध का सामना करना पड़ता है। जहां ईश्वर ने स्त्री को अनेक गुणों से सजाया है वहीं एक दोष ईष्र्या का भी दिया है। महिलाओं का दृष्टिकोण दूसरी महिला साथी के लिये अच्छा नहीं होता। बहुत सी ऐसी महिलाएं समाज में हैं जिन्होंने अपनी क्षमता सिद्ध की है। वे अपनी ही महिला जाति का सहयोग नहीं करती है। दुर्भाग्यवश किसी महिला के साथ अगर कोई अनहोनी घटना हो जाती है, तो उसको साहस और सहयोग देना छोड़ महिलायें स्वयं उस महिला की आलोचना करती हैं। ऐसा करने से दु:खी महिला के दु:ख में वृद्धि हो जाती है। लोग उस पर चरित्र हनन का दोष लगा देते हैं जबकि आज आवश्यक है कि महिलाएं अत्याचारों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करें क्योंकि कोई भी परिवर्तन अपने आप नहीं आता, परिवर्तन लाना पड़ता है।
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को जोरों का दर्द शुरू हो गया। सास ने पड़ोस के कमल मास्टर जी को जगाया और टैक्सी के लिए दौड़ा दिया। मिनटों में टैक्सी दरवाजे से आ लगी। बहू को सहारा देकर सास ने टैक्सी में बिठाया। उसका सर गोद में रखकर वह नर्सिंग होम चल दी।
बच्चे के कपड़े और कुछ जरूरी सामान उसने पहले से ही बैग में रख छोड़े थे, इसलिए उसे जरा भी देर न लगी फिर वह फौजी की मां थी उसे मालूम था एमरजैंसी में वक्त की क्या कीमत होती है। दर्द से छटपटाती बहू को देख कर सास का मन तड़प उठा था। वह लगातार उसका सिर और गाल थपथपा रही थी।
बस मेरी बच्ची थोड़ी देर की बात है। थोड़ा और सहन कर ले प्रभु भली करेंगे। सास ने तसल्ली दी। ‘मां मैं मर जाऊंगी, अब मैं नहीं बचूंगी। बहू रोते तड़पते बोली। इतने में नर्स ने आकर उसे स्ट्रेचर पर लिटाया और दो वार्ड ब्वॉय उसे ऑपरेशन थिएटर की ओर ले गए।
थोड़ी देर बाद नर्स ने आकर कहा बधाई हो माताजी पोता हुआ है।
मेरी बहू कैसी है? सास ने घबराकर पूछा, ठीक है माताजी चिंता की कोई बात नहीं नॉर्मल डिलिवरी हुई है। चौथे दिन सास बहू पोते को घर ले आई। बिरादरी में लड्डू बंटवाये। जच्चा के गीत गवाये। ब्राह्मण और गरीबों को शक्ति भर दान दिया और पति की तस्वीर के आगे खुशी के आंसू पोंछते हुए कहा कितना अच्छा होता अगर यह मुबारक दिन देखने के लिए तुम भी होते।
कब सविता, उनकी बहू, उनके पीछे आकर खड़ी हो गई, उन्हें पता भी न चला। उसने सास की आंखें अपने दुपट्टे से पोंछते हुए कहा ‘मत रोओ मां तुम न कहती थी वे दुबारा इसी घर में जन्म लेंगे। ऐसा ही हुआ है मां, बाऊजी फिर आ गए हैं शरीर मुन्ने का है मगर रूह उन्हीं की है।‘
सास बच्ची की तरह बहू की गोद में सिसक रही थी।
कुछ देर बाद जी हल्का होने पर उन्होंने स्नेह भरी मुस्कान चेहरे पर लाकर बहू से पूछा मैं तेरी मां हूं या तू मेरी मां? आंखों में शरारत भरकर वह बोली ‘कभी तुम कभी मैं’। (विभूति फीचर्स)