मज़हबी उन्माद का घिनौना चेहरा है आतंकवाद

(डॉ. सुधाकर आशावादी-विनायक फीचर्स)
किसी भी भूभाग पर रहने वाले लोगों का जीवन उस भूभाग पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर ही निर्भर रहता है। इसलिए पृथ्वी का जो भूभाग व्यक्ति के लिए अन्न, जल व आवास की व्यवस्था करता है। उस भाग के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना व्यक्ति का प्रथम दायित्व होना चाहिए। विश्व भर में ऐसा ही है जहां राष्ट्र सर्वोपरि की भावना से प्रत्येक नागरिक राष्ट्र के प्रति समर्पित रहता है । कई देशों का विधान ही ऐसा है, जहां व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत आस्थाओं के अनुपालन में राष्ट्र धारा के प्रतिकूल आचरण करने का दुस्साहस नही कर सकता। विडंबना है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में मज़हब के नाम पर लोगों को मनमानी की छूट प्राप्त है, जिस कारण कुछ लोग मज़हबी उन्माद में जीयो और जीने दो के सिद्धांत की अवहेलना करने में पीछे नहीं रहते, जिसके परिणाम स्वरूप देश में धार्मिक उन्माद आतंकवाद जैसी अमानवीय हिंसा को निमंत्रण देता है।

कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के उपरांत सैलानियों की सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों की विफलता पर सवाल तो उठेंगे ही, मगर इस आतंकी हमले में समूचे देश में विगत अनेक बरसों से राष्ट्र से पहले मजहब को मानने का प्रचलन भी कम दोषी नहीं है। कौन नहीं जानता कि किसी भी पंथ निरपेक्ष राष्ट्र में सभी को अपने अपने धार्मिक मूल्यों के आधार पर पूजा पद्धति अपनाने और सांस्कृतिक व परम्परागत उत्सव मनाने का अधिकार है, किन्तु यह अधिकार राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर प्रहार करने तथा राष्ट्रय अनुशासन को अस्वीकार करने की स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता। किसी भी समृद्ध लोकतंत्र में आम आदमी के लिए दो विधान नहीं हो सकते। भारत का दुर्भाग्य है कि कतिपय राजनीतिक स्वार्थ के चलते कुछ राजनीतिक दलों ने सत्ता बहुमत के आधार पर संविधान में मनमाने संशोधन करके खास धर्म के अनुयायियों को विशेषाधिकार प्रदान किए। अल्पसंयकों में भी भेदभाव किया। अल्पसंख्यकों की गणना हेतु समुचित मानक निर्धारित नहीं किए, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अल्पसंख्यक होने का अधिकाधिक लाभ केवल एक ही मजहब के अनुयायियों ने अधिक उठाया। सरकारी योजनाओं के नाम पर फर्जी संस्थान स्थापित करके करोड़ों रूपये के अनुदान प्राप्त किए। बिना किसी आधार के सरकारी और व्यक्तिगत सम्पत्तियों को वक्फ की संपत्ति घोषित करके समाज में विघटनकारी स्थिति उत्पन्न की। देश की संसद में भी अपने अनुरूप संविधान में संशोधन कराया तथा माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को भी अपने मजहबी मामलों में दखल घोषित करके नकारा। इतिहास साक्षी है कि विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश में ऐसी दबाव की एक पक्षीय नीतियों को कोई मान्यता नहीं दी जाती। विश्व में राष्ट्र सर्वोपरि की भावना से ही व्यवस्था सुचारू रहती हैं। जिन मजहबी रिवायतों को इस्लामिक राष्ट्र भी अपने देश में लागू नहीं करते, उन मजहबी रिवायतों के नाम पर भारत में धरने प्रदर्शन करके राष्ट्र को नकारने में भी संकोच नहीं किया जाता। यह चिंताजनक स्थिति है, जिससे निपटने के लिए एक देश एक कानून और समस्त लोकतान्त्रिक मूल्यों को धार्मिक आस्थाओं से ऊपर उठकर स्वीकारने पर बल दिया जाना आवश्यक है। भारत जैसे देश में मजहब के नाम पर कट्टरपन और आतंक को किसी भी स्थिति में सहन नहीं किया जा सकता। सो आवश्यक है कि संविधान से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जैसे शब्दों की जगह केवल नागरिक शब्द को मान्यता दी जाए। कोई भी मजहब राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता, सो समान नागरिक संहिता, कठोर जनसँख्या नीति, नागरिक पंजीकरण की व्यवस्था प्राथमिकता के आधार पर हो। राष्ट्र के समग्र विकास और आत्मनिर्भर भारत बनाने हेतु मुफ्त में प्रदान की जाने वाली सुविधाएँ तत्काल प्रभाव से बंद हों। यदि समय रहते मजहबी उन्माद को नहीं रोका गया, तो वह दिन दूर नहीं, कि जब कट्टरपंथी सिर्फ कश्मीर में ही नहीं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी धर्म पूछकर अपने खतरनाक मंसूबों को अंजाम देने से का दुस्साहस न करें। सो समय से ही यदि आतंकियों पर कठोर कार्यवाही अपेक्षित है। (विनायक फीचर्स)