अलाव

नयन कुमार राठी – विनायक फीचर्स

बहुत तेज सर्दी की सुबह में स्वेटर-कोट पहने कान पर मफलर लपेटे, शॉल ओढ़े हुए मार्निंग वॉक पर निकला।

थोड़ा आगे बढऩे पर मैंने देखा अलग-अलग समूहों में लोग जलती लकड़ी के अलाव के आसपास बैठे खुद को सर्दी से बचाने की कोशिश कर रहे हैं। उनको ठिठुरते देख मुझे अपने बचपन और गांव की याद आ गई।

बचपन में मैं, भाई-बहिन गांव में माता-पिता और संयुक्त परिवार के साथ रहते थे। दादाजी-पिता जी और काकाजी खेती का काम करते। रोज सुबह वे उठकर नहा धोकर चाय पीकर खेत के लिए निकल जाते। हम बच्चे गांव के स्कूल में पढऩे चले जाते।

सर्दी के दिनों में हम जब स्कूल के लिए निकलते रास्ते में जगह-जगह लोग समूह बनाकर अलाव के आसपास बैठे रहते। हम भी समूह में शामिल होकर अपने को गरम करते। इसी कारण स्कूल देर से पहुंचते। स्कूल में शिक्षक की डांट और हल्की-फुल्की सजा भी कभी-कभी मिलती। जिसे हम हंसकर भुला देते।

कभी-कभी तो हम स्कूल नहीं जाते हुए दूर तक निकल जाते। लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े जमा करते और किसी सुनसान जगह पर बैठकर लकड़ी जलाकर अलाव के सामने बैठकर अपने को सर्दी से बचाने की कोशिश करते। स्कूल का समय खत्म होने पर घर पहुंच जाते।

पर एक बार हमारी ये करतूत स्कूल के एक शिक्षक ने देख ली। उन्होंने प्रधान सर से शिकायत की। प्रधान सर ने स्कूल के चपरासी को हमारे घर भेजकर सभी के पिताजी को बुलवाया। सारी बात बतलाई और बोले अब अगर इनमें से किसी ने भी ऐसी हरकत की तो स्कूल नहीं आने दूंगा। नाम भी काट दूंगा।

हमें चेतावनी मिली, साथ ही यह हुआ कि घर का कोई बड़ा हमें स्कूल छोडऩे जाने लगा। पर इतने पर भी हम कहां चुप बैठते। स्कूल से लौटने के बाद खाना-पीना करके खेलने के बहाने से हम सभी एक जगह इकट्ठे होते और लकडिय़ां बीनने निकल पड़ते। लकड़ी जमा करके सुनसान जगह पर अलाव जलाकर तापने लगते पर कभी-कभी पकड़ में आ ही जाते। डांट-फटकार पड़ती। हम सहन कर जाते।

इस तरह मौज-मस्ती और हंसी-खुशी में बचपन कब बीत गया। मालूम ही नहीं हुआ। कॉलेज की पढ़ाई के लिए मुझे शहर आना पड़ा। शहर में ही पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई खत्म होते ही सर्विस मिल गई। विवाह हुआ। पत्नी आई, बच्चे-बच्ची भी हुए। हर वर्ष हम प्रमुख वार-त्यौहार पर गांव जाते। जब हम गांव जाते, दादाजी-दादीजी मेरे बच्चों को मेरी और मेरे साथ वाले बच्चों की शरारतों के बारे में बतलाते। शहर लौटने पर बच्चे मुझे प्यार से चिढ़ाते। मैं खुश होकर छाती ठोंकता और कहता- सचमुच गांव की बात निराली है। वहां जो मजा है, वह शहर में कहां है।

वे भी हंसकर कहते- हां पिताजी! आप सच कह रहे हैं, जो मजा गांव में है, वह यहां हो ही नहीं सकता।

मजाकिया अंदाज में मैं कहता- चलो हम गांव में ही बस जाएं। मैं खेतों में काम करूंगा, तुम्हारी माताजी घर का काम करेगी। हंसते हुए बच्चे कहते- हमें गांव जाकर गक्खड़ बनना है क्या…? मैं हंस देता और कहता बच्चों! ये सब अब पुरानी बातें हैं, अब तो गांव के बच्चे शहर के बच्चों से ज्यादा समझदार हैं।

इतने में एक बच्चा पीठ पर बस्ता लटाकाए दौड़ते हुए मेरे पास आया, हांफते हुए बोला- दादाजी-दादीजी…! वो बात ये है…! मैं समझ गया, यह सर्दी से परेशान है। ऊपर से यह भारी सा बस्ता…!मैं उसे सहलाते हुए सामने बैठे अलाव ताप रहे लोगों के समूह में ले गया। थोड़े समय वहां रहने को कहा।

थोड़े समय बाद वह खुद बोला- दादाजी! आप बहुत ही अच्छे हैं। आपने मुझे जलती लकड़ी के अलाव के सामने लाकर मुझमें गर्मी ला दी है। अब मुझे बस्ते का बोझ भी हल्का लग रहा है। अच्छा अब मैं चलता हूं। स्कूल के लिए देर हो रही है। उसने मुझे चूमा, अलाव के आसपास बैठे लोगों को धन्यवाद देते हुए हाथ हिलाते हुए रवाना हो गया।

उसे जाते देख मुझे मेरा बचपन, बचपन के साथी और पुराने दिन याद आ गए। हंंसते हुए मैं भी घर की ओर बढ़ गया। (विनायक फीचर्स)

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