*ईश्वर ऐसे मिलता है*
(कृष्णा रंजन – विभूति फीचर्स ) प्रस्तुती – सुरेश प्रसाद आजाद
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जो जाना जा सकता है वह संसार है। जानने से जो छूट जाता है, वह सत्य है। जो पाया जा सकता है वह पदार्थ है। जो पाने से छूट जाता है, वह परमात्मा है, इसीलिये ईश्वर एक पहेली है। उसे खोजने वाला खोजते-खोजते स्वयं खो जाता है,तब वह मिलता है। उसे पाने के लिए स्वयं को खोना पहली शर्त है, तब कौन, किसे, कैसे और कहां मिला? उसका कोई रंग, रूप, कद, काठी नहीं है। वह न कुछ (नथिंग) है। शून्य है। महाशून्य है।
प्रकृति लीन होते-होते मिटते-मिटते परमात्मा बन जाती है और परमात्मा प्रकट होते-होते प्रकृति बन जाता है। हवा, पानी, धरती, आकाश, चन्द्र, सूर्य, दिन-रात्रि, सर्दी-गर्मी आदि को प्रकृति कहते हैं। वह जब न रहे तब प्रकृति है, प्रकृति न रहे तो परमात्मा। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
मनुष्य को बीज कहा गया है ईश्वर का। कैसे, जरा ध्यान में लें, मैं जो आप लोगों के सम्मुख बैठा हूं।
इसके पूर्व मैं कहां था? कैसे आया? इसके पूर्व मैं मां के गर्भ में था। एक बात साफ हुई कि हम मां के गर्भ से यहां आये। उसके पहले हम कहां थे? कैसे मां के गर्भ में आये?
मां के गर्भ के पूर्व हम माता-पिता के शुक्राणु में थे। शुक्राणु के भी पहले हम माता-पिता के रक्त में थे यह भी स्पष्ट हुआ। रक्त के पूर्व हमारा होना कहां था, हम कहां थे? पूर्व में हम हवा, पानी, सर्दी, गर्मी, चन्द्र, सूर्य, रात, दिन तथा धरती और आकाश में थे। तब हम कौन हुए।
इसलिए यह सिद्ध होता है कि आदमी बीज है भगवान का। परमात्मा की रोशनी जब भी उतरी है आदमी पर ही उतरी है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर क्राईस्ट प्रमाण हैं।
वह परमात्मा है, हममें आत्मा है। वह चैतन्य है चेतना हमारे पास है। वह भगवान है, हममें ध्यान है। हम जीव हैं वह शिव हैं। आदमी रिमोट कन्ट्रोलर है, बीज है भगवान का।
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बीज में वृक्ष की संभावनायें हैं जो दिखाई नहीं पड़ता है। बीज को वृक्ष में रूपान्तरित किया जाता है। खेती होती है। वह बीज मिट जाता है। मिट्टी में खो जाता है। मिल जाता है। तब वह अंकुरित होता है। जाग जाता है। पौधे से वह स्वमेव ही वृक्ष बन जाता है। ठीक इसी तरह जिसने स्वयं की अस्मिता को विलीन कर दिया।
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जिन्हें स्वयं में परमात्मा का अनुभव नहीं होता, उन्हें पत्थरों में, पदार्थों में परमात्मा का अनुभव कैसे होगा। हम स्वयं को छोड़कर संसार भर में उसे खोजते फिरते हैं। हमें पत्थर, लकड़ी, शीशे, रांगे में ईश्वर होने का पूरा भरोसा होता है। स्वयं पर नहीं।
शब्दों में बड़ी भ्रान्ति होती है। जब कबीर, चैतन्य, सूर ने कहा कि उन्हें मिल गया या प्राप्त हो गया। हमने समझा कहीं खो गया था जो उन्हें मिल गया या प्राप्त हो गया। ठीक नदी की सूखी रेत की तरह, गड्ढा है। उसमें से कचरा हटा दें। सूखे पत्ते हटा दें नीचे से पानी झांकता है। हम इसे बताने या कहने के लिये यही कहेंगे कि पानी मिल गया। इसका अर्थ हुआ कि पानी वहां था। कुछ पत्ते कचरों से वह ढंक गया था। उसे हटाते ही पानी नीचे से झांकता है। इसी तरह खोजियों को परमात्मा की अनुभूति हुई और उन्होंने घोषणा की कि ईश्वर मिल गया। हमने समझा बाहर से मिला।
जिन खोजियों को भी सत्य या परमात्मा की अनुभूति हुई, उन लोगों ने तीर्थ या मंदिर के भीतर जाकर नहीं स्वयं के भीतर जाकर घोषणा की कि उन्हें मिल गया। स्वयं रास्ता है सत्य का। हमारा मन है कि हम किसी से सुनकर सत्य को पा लेना चाहते हैं। कुछ ग्रन्थ, किताबें पढ़कर हम ईश्वर को प्राप्त कर लेना चाहते हैं। यह कैसे हो सकेगा। हम कहते हैं वह बहुत दूर है। बद्रीनाथ, केदारनाथ, हिमालय जाना पड़ेगा। हमें यह भी तो समझ लेना चाहिए कि हमारे पास जो है वह क्या है। कौन है जिसने जन्म लिया। बच्चा रहा, जवान हुआ, बूढ़ा होकर मर जाता है। कोई नहीं जान सका, समझ सका?
हमने बचपन को देखा है। जवानी और बुढ़ापे को भी देखा है। बचपन आया और चला गया। जवानी आई और चली गई। बुढ़ापा आया और गया। हम आये न गये। कौन हैं हम। सुख-दु:ख की घड़ी आई और वह भी बीत गई। हम नहीं बीते-बात क्या है।
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हम जो हैं उसे जानना नहीं चाहते कि हम क्या हैं। जो नहीं है, उसमें हम जीवन जी रहे हैं। विसंगतियों का यह भी कारण है। ध्यान और देह के संयोग को ही योग कहा जाता है। कभी आप अपनी ओर ध्यान दें। शरीर कहीं और सक्रिय है। ध्यान कहें या चेतना कह लें, कहीं और है। अध्यापक कहता है कि ध्यान से सुनो, ध्यान से देखो। छात्र कान से सुन रहा है, आंख से देख रहा है यह ध्यान क्या कौतुक है। बातें बन जाती हैं, क्योंकि छात्र और अध्यापक एक ही धरातल के होते हैं। दोनों नहीं जानते कि ध्यान क्या है।
आदमी, जो है, वही होकर आनंदित होगा। जो नहीं है, वह होकर आनंदित वह आदमी न हो सकेगा।
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आदमी की बीमारी कहें या और कुछ। उसे जो होना था, वह नहीं हो पाया। वह वही हो गया है, जो उसे नहीं होना था, इसलिए उसकी एक महत्वपूर्ण महत्वाकांक्षा उत्पन्न होती है कि मैं कुछ हो जाऊं। किसी भी तरह। कैसे भी कुछ हो जाऊं। इसी कसरत में वह, वह हो गया जो उसे नहीं होना था। संभवत: धर्म की यही समझ है कि तुझे जो होना है हो जा। तेरे भीतर जो बीज है वह वृक्ष हो जाए, फले और फूले। दरअसल, धर्म करने की नहीं, होने की प्रवृत्ति है। भीतर सत्य या परमात्मा है। बाहर पदार्थ है, संसार है। हम जो करते हैं वह सब बाहर-बाहर। भीतर का क्या हुआ। प्रश्र करने का नहीं, होने का है। आप हैं कहां? आपकी चेतना, ध्यान कहां है? शरीर करने के लिये है। चेतना या ध्यान में होना है।
करने के लिये बाहर की दौड़ में होंगे। होने के लिये अन्तर्यात्रा करनी पड़ेगी। हमारे पास बाहर संसार का भूगोल अवश्य है। भीतर की यात्रा का एटलस या भूगोल हमारे ज्ञान में नहीं है। इसलिये भी हमारा होना कठिन लगता है। अतएव हमने करने में रस पैदा कर लिया।
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धर्म, कर्म काण्ड करने की प्रकृति का पोषक है। करने से राहत अवश्य मिलती है कि हमने कुछ किया। इससे अधिक और कुछ नहीं। धर्म के जगत में ऐसे विभिन्न किस्मों के राहत कार्य चलने लगे हैं, जिसमें जजमान, पुरोहित, धर्माचार्य, स्वयंसेवकों तथा अन्य लोगों का हित होता है। धर्म होने के लिये है। ईश्वर आडम्बर नहीं है बल्कि अपनी चेतना को बाहर से भीतर की ओर उन्मुख करना है। (विभूति फीचर्स)