गुरु पिंडा! आप जानते हैं क्या?

वसंत पंचमी के दिन ‘खल्ली धराय’ हुआ करता था। संभवतः हम वह आखिरी पीढ़ी हैं  जिसका बाल्यावस्था लगभग 5 वर्ष की आयु में नियमित: सरस्वती पूजा, माघ श्री पंचमी के दिन पाठशाला में गणेश भगवान के समक्ष विधिवत पूजा अनुष्ठान के बाद खल्ली धराई हुई थी। खल्ली  धराई या कहीं-कही खल्ली पकड़ाई कहा जाता था। खल्ली, chalk ढेले के रूप में आता था। आजकल रिफाइन में  chalk stick आता है। 

वसंत पंचमी के  दिन विद्यालय का पहला दिन ! मुझे  स्मरण है। स्कूल को गुरूपिंडा कहा जाता था। गुरूपिंडा का अर्थ गुरुपीठ ! पीठ माने, संस्था, संस्थान आदि समझा जा सकता है। मठ, पीठ, गुरु, देवम आदि से भी गुरुपीठ के भाव का अनुभव किया जा सकता है। ऐसे सभी स्थान को तब गुरु का आश्रय स्थल या गुरुजी के रहने की जगह मानी जाती थी।

      मुझे याद है, दो कमरे, बड़ा ओसारा। ओसारा के आगे छोटा सा उपयोगी मैदान था। उस मैदान के  किनारे गेंदा फूल के घने पौधे थे! बड़े –  बड़े गेंदा के  पीले- पीले फूल खिले थे।  पढ़ने वाले बड़े भईया  लोगो की भीड़ थी। अंदर ओसारे पर पूजा हो रही थी। ओसारे के भीतरी दीवाल के ताखे पर गणेश भगवान मूर्ति विराजती थी। मुझे नहा- धो कर,  नए कपड़े  पहना कर अपने एक चचेरे भाई जो वहीं पढ़ते थे के साथ भेजा गया था। साथ में पूजा की थाली थी। थाली में पूजन सामग्री के अतिरिक्त खल्ली का एक ढेला भी था। अंदर हवन – धूप के गंध तथा धुंआ , मेरे आंख में लगी काजल जिसे घर में मेरे बाल संवारने के बाद मेरी मां ने लगाई थी  आदि से मैं परेशान और डर में था। काजल की वजह से आँखें परपराती थी , सो अलग। मैं सहज नहीं बल्कि दुखी था। तभी पंडित जी ने   मेरे छोटे हाथ पकड़ कर पूजा करवाई। भूमि पर खल्ली से  लिखवाया…… वहीं से मेरा विद्या प्राप्त करने का समय आरंभ हुआ। पिण्डा में सरस्वती जी की नहीं हर शनिचर गणेश जी की पूजा होती थी। हम पढ़ने वाले बच्चे गणेश जी को ही अधिक प्राथमिकता देते  थे। छठा क्लास से हाइ स्कूल में जाने के बाद  पता चला कि विद्या के मामले में सरस्वती जी की ही सेवा करनी होगी ।

ज्ञानचंद मेहता

नीचे मैं स्मरण कर क्रम से उन पूजनीय गुरु देवों के नाम लिखता हूं, जिनसे मैं शिक्षा प्राप्त किया।

श्री सिद्धू (सिद्धेश्वर प्रसाद यादव) गुरुजी। यह गुरूपिंडा मिर्जापुर, बडवा में था।आज वह खेत है।

श्री सोहर महतो  गुरु जी, नेहालू चक।

श्री मथुरा लाल गुरू जी यह स्कूल क्या था, खुली जगह थी मिर्जापुर  स्व. सत्यनारायण जी के घर से पश्चिम।

वर्ष 1959 सरकारी प्राथमिक विद्यालय ,आर्यसमाज मंदिर में 4th  class में नाम  लिखवाया गया। यह सरकारी विद्यालय विजय सिनेमा  के पश्चिम था। यहां गुरूपिंडा की संस्कृति  से पिंड छुटा था। शनिचरा नहीं होता था।  बाहर अलग तरीके से पढ़ाई होने लगी। यहां अर्द्ध वार्षिक तथा वार्षिक परीक्षाएं होने लगी थी। इस विद्यालय में सरस्वती पूजा नहीं होती थी। गणेश जी भी यहां नहीं थे। आर्य समाज का भवन होने के कारण वसंत पंचमी के दिन हवन मात्र होता था। आर्य समाज  के मैदान विजय सिनेमा दीवार दिखता था जिसपर कभी एक बड़ा पोस्टर चिपका था सो चिपका था, ‘ मैं नशे में हूं!’ सिनेमा हॉल अनिश्चित काल तक के  लिए बंद था।

वर्ष 1961 में छठा क्लास में हाई स्कूल, कन्हाई हाई स्कूल , नवादा में नाम लिखाया। फिर तो सरस्वती पूजा की भव्यता देखते बनती थी। विसर्जन की शोभायात्रा बहुत ही शालीन हुआ करती थी। तब लड़कों द्वारा नाचना कूदना नहीं होता था। सभी लड़के मूर्ति के पीछे कायदे से चलते थे। नगर में तब दो ब्राश बैंड वाले बड़े मशहूर हुआ करते थे। एक, हिम्मत सारण बैंड दूसरा था मुन्नू सारण बैंड। हिम्मत सारण ब्राश बैंड का पूरा सेट फुल यूनिफॉर्म सेट होता था।

 अब मित्रगण ही आंकलन करें तब ओर आज में क्या तथा कितना फर्क आया है?

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